संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्य नचिरेणाधिगच्छति ॥6॥
संन्यासः-वैराग्य; तु–लेकिन; महाबाहो बलिष्ठ भुजाओं वाला, अर्जुन; दुःखम्-दुःख; आप्तुम्–प्राप्त करता है; अयोगतः-कर्म रहित; योग–युक्त:-कर्मयोग में संलग्न; मुनिः-साधुः ब्रह्म-परम सत्य; न चिरेण-शीघ्र ही; अधिगच्छति–पा लेता है।
BG 5.6: भक्तियुक्त होकर कर्म किए बिना पूर्णतः कर्मों का परित्याग करना कठिन है। हे महाबलशाली अर्जुन! किन्तु जो संत कर्मयोग में संलग्न रहते हैं, वे शीघ्र ही ब्रह्म को पा लेते हैं।
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हिमालय की गुफाओं में रहने वाला योगी यह समझता है कि उसने वैराग्य प्राप्त कर लिया है किन्तु उसके वैराग्य का वास्तविक परीक्षण उसके नगर में लौटने पर होता है। उदाहरणार्थ एक साधु जिसने 12 वर्षों तक गढ़वाल के पहाड़ों में तपस्या की थी, वह हरिद्वार में पवित्र कुम्भ मेला देखने आया। कुम्भ मेले की भीड़-भाड़ में किसी व्यक्ति ने भूल से अचानक अपने जूते साधु के नंगे पैरों पर रख दिए। साधु ने क्रोधित होकर चिल्ला कर कहा-"क्या तुम अंधे हो" क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता है कि तुम क्या कर रहे हो?" बाद में वह क्रोध को अपने ऊपर हावी होते देखकर पश्चात्ताप करते हुए लज्जित होकर सोचता है-"एक दिन नगर में रहने से उसकी 12 वर्षों तक पर्वतों पर की गई तपस्या व्यर्थ हो गयी।" संसार वह क्षेत्र है जहाँ वैराग्य का परीक्षण होता है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस संसार में रहते हुए मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए धीरे-धीरे क्रोध, लोभ और कामनाओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। यदि इसके स्थान पर कोई पहले ही अपने कर्मों का त्याग कर देता है तो मन को शुद्ध करना अत्यंत कठिन हो जाता है और शुद्ध मन के बिना वास्तविक विरक्ति होना स्वप्न के समान है। अर्जुन एक योद्धा था और यदि वह भ्राणवश अपने कर्तव्यों का निर्वहन न कर संन्यास के लिए वन में चला जाता तब भी उसे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वहाँ कार्य करने के लिए विवश होना पड़ता। वह वहाँ आदिवासी लोगों को एकत्रित कर स्वयं को उनका राजा घोषित कर सकता था। लेकिन इसके विपरीत अब भगवान की सेवार्थ अपनी स्वाभाविक प्रतिभा का उपयोग करना अर्जुन के लिए अधिक लाभदायक होगा। इसलिए भगवान ने उसे उपदेश दिया-"युद्ध लड़ना जारी रखो, लेकिन अपने मनोभाव को बदलो। पहले तुम अपने राज्य को बचाने की प्रत्याशा से इस युद्ध भूमि पर आए थे। अब इसके स्थान पर निःस्वार्थ भाव से केवल अपनी सेवाएँ भगवान को समर्पित करो। इस प्रकार से तुम सहजता से अपने मन को शुद्ध कर पाओगे और मन में सच्चे वैराग्य की अनुभूति करोगे।" कच्चे फल जिन्हें वृक्ष धारण और पोषित करता है, वे उसके साथ दृढ़तापूर्वक चिपटे रहते हैं किन्तु वही फल जब पक जाते हैं तब वे वृक्ष के साथ सम्बन्ध तोड़ देते हैं। समान रूप से भौतिक जगत में कर्मयोगी जो अनुभव प्राप्त करता है उससे उसका ज्ञान परिपक्व होता है। जिस प्रकार गहन निद्रा तभी संभव है जब कोई कठोर परिश्रम करता है उसी प्रकार से गहन साधना भी उन्हें प्राप्त होती है जो कर्मयोग द्वारा अपने मन को शुद्ध कर लेते हैं।